Muharram Kyu Manate Hai (Photo - Social Media)
मुहर्रम का महीना: इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम, खुशियों का नहीं, बल्कि गम और शोक का प्रतीक है। इसकी जड़ें 1400 साल पहले इराक के कर्बला में हुई एक ऐतिहासिक लड़ाई में हैं, जहां पैगंबर हजरत मुहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयायियों ने अपने प्राणों की आहुति दी। यह लड़ाई केवल हथियारों की नहीं थी, बल्कि सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय की थी। आइए, इस ऐतिहासिक घटना और मुहर्रम के महत्व को विस्तार से समझते हैं।
मुहर्रम का महत्व मुहर्रम का महत्व
मुहर्रम को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। हजरत मुहम्मद ने इसे अल्लाह का महीना कहा, जिसमें रोजा रखने और नेकी करने का विशेष महत्व है। शिया मुसलमानों के लिए यह महीना मातम का होता है, क्योंकि 10वीं तारीख, जिसे आशूरा कहा जाता है, को इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत हुई थी। सुन्नी मुसलमान भी इस दिन को महत्व देते हैं, लेकिन वे इसे रोजा रखकर मनाते हैं। भारत में मुहर्रम ताजिया जुलूस और मातम के साथ मनाया जाता है, विशेषकर लखनऊ, दिल्ली और हैदराबाद में। यह महीना हमें सिखाता है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना कितना आवश्यक है।
कर्बला की जंग का इतिहास कर्बला की जंग का इतिहास
कर्बला की लड़ाई 10 अक्टूबर, 680 ईस्वी को इराक के कर्बला में हुई थी। यह इमाम हुसैन और उनके छोटे से काफिले तथा उमय्यद खलीफा यजीद की विशाल सेना के बीच लड़ी गई थी। इस लड़ाई की जड़ इस्लामिक सत्ता के विवाद में थी। पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु के बाद, खलीफा चुनने की परंपरा शुरू हुई थी। पहले चार खलीफा सहमति से चुने गए, लेकिन उमय्यद वंश ने सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश की। मुआविया ने खलीफा अली (इमाम हुसैन के पिता) को धोखे से मारकर सत्ता हासिल की और अपने बेटे यजीद को खलीफा बनाया।
कर्बला की जंग की शुरुआत कर्बला की जंग की शुरुआत
इमाम हुसैन अपने परिवार और 72 साथियों के साथ मक्का से कूफा की ओर निकले। यजीद की सेना ने उन्हें कर्बला में घेर लिया। 2 मुहर्रम को, यजीद की सेना ने इमाम हुसैन के काफिले को पानी लेने से रोक दिया। 7 से 10 मुहर्रम तक, हुसैन और उनके साथी भूख और प्यास का सामना करते रहे। इमाम हुसैन ने यजीद की सेना से अपने बच्चों के लिए पानी मांगा, लेकिन उनके 6 महीने के बेटे अली असगर को मार दिया गया। 9 मुहर्रम की रात, इमाम हुसैन ने अपने साथियों को जाने का मौका दिया, लेकिन कोई नहीं गया। 10 मुहर्रम की सुबह, जब इमाम हुसैन नमाज पढ़ रहे थे, यजीद की सेना ने हमला किया।
इमाम हुसैन की शहादत इमाम हुसैन की शहादत
जंग के अंतिम क्षणों में इमाम हुसैन अकेले थे। प्यास, भूख और जख्मों से थककर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। यजीद की सेना ने उन्हें बेरहमी से शहीद कर दिया। उनके साथ उनके बेटे अली अकबर, भतीजे कासिम और छोटे बेटे अली असगर भी शहीद हुए। यजीद की सेना ने न केवल हुसैन को मारा, बल्कि उनके तंबुओं में आग लगा दी और उनके परिवार को लूट लिया। यह घटना कर्बला को इतिहास की सबसे दुखद घटनाओं में से एक बना देती है।
कर्बला का संदेश कर्बला का संदेश
कर्बला की जंग हमें सिखाती है कि जुल्म और अत्याचार के सामने कभी नहीं झुकना चाहिए। इमाम हुसैन ने दिखाया कि सत्य और इंसाफ के लिए अपनी जान देना आसान है, लेकिन झूठ और जुल्म के सामने सिर झुकाना मंजूर नहीं। उनकी शहादत ने दुनिया को इंसानियत, हिम्मत और सब्र का संदेश दिया। यह संदेश आज भी हर धर्म और समुदाय के लिए प्रेरणा है।
भारत में मुहर्रम की परंपराएं भारत में मुहर्रम की परंपराएं
भारत में मुहर्रम की शुरुआत 12वीं सदी में कुतुब-उद-दीन ऐबक के समय से मानी जाती है। गया में एक अनोखा कर्बला है, जिसे एक हिंदू परिवार ने बनवाया था। मुहर्रम के जुलूस में लोग ताजिया को सजाकर सड़कों पर ले जाते हैं। ये जुलूस एकता और भाईचारे का प्रतीक हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपने नाटक कर्बला के जरिए इस घटना को भारत में जन-जन तक पहुंचाया।
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